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'सियासी तर्जुमा'

मकसद सत्ता हासिल करना नहीं, हालात बदलना है

16-Nov-2018

By:  sachin



विश्वरूपम-2 के निर्माता, निर्देशक, लेखक, अभिनेता, सह-कोरियोग्राफर कमल हासन फिल्म के प्रचार अभियान पर हैं जिसे सिनेमा से रिटायर होने से पहले उनकी तीसरी आखिरी फिल्म बताया जा रहा है. सुहानी सिंह और अमरनाथ के मेनन के साथ 50 मिनट तक चली लंबी बातचीत में हासन ने अपनी फिल्मों, अपने हीरो महात्मा गांधी, अपनी पार्टी मक्कल नीति मइयम के बारे में बातचीत की और बताया कि वे क्यों राजनीति में उतरे विश्वरूपम (2013) के बाद से भारत की किस तरह की तस्वीर उभरी है? जैसा हमेशा से होता रहा है, चीजें थोड़ा आगे बढ़ती हैं तो थोड़ा पीछे जाती हैं. लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि इस दफा हम रचनात्मक नहीं बल्कि उलटी बहस की ओर बढ़ रहे हैं. कुतर्क का शोर दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है.  विश्वरूपम में मुसलमानों को जिस तरह से दिखाया गया, उस वजह से उसकी आलोचना हुई. यह भारत के एक स्लीपर एजेंट के बारे में है जो कि मुसलमान है. मुसलमानों के बारे में आपकी धारणा ऐसी बना दी गई है और सांप्रदायिक तनाव तथा असहमति की आवाज इतनी तल्ख हो गई है कि आप कहानी देखना ही भूल जाते हैं. वह सबसे पहले एक हिंदुस्तानी है, मजहब तो कहीं है ही नहीं. मुझे बताइए, 2018 में ऐसे कितने लोग हैं जो सीना ठोककर यह कह सकें. बहुत-से लोग कहने को तैयार हैं पर गुंडे-लंपटों के डर के मारे कह नहीं पाते. आपने फिल्मों में अभिनय, उनका लेखन, निर्देशन, कोरियोग्राफी और निर्माण सब कुछ किया है. आपको सबसे ज्यादा कौन-सा रोल पसंद है? दर्शक बनना. सब आग्रह-पूर्वाग्रह किनारे रखकर फिल्म देखना. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह फिल्म बनाई किसने है. दो से तीन मिनट लगता है और चीजें समझ में आने लगती हैं, खुशी होती है, खासकर अगर वह मेरी ही फिल्म है. अभिनय मेरा पहला प्यार कभी नहीं था. मैं बेमन से ऐक्टर बना था. अगर (अपूर्व रागंगल, एक दूजे के लिए के निदेशक) ख्के., बालाचंदर साब न होते तो मैं यहां नहीं होता. डांस करना मुझे बेहद पसंद था पर फिर मुझे लगा कि इसमें सिनेमा जितने आयाम नहीं हैं. भरतनाट्यम सीखने से मुझे उसी तरह का फायदा हुआ, जैसा कि किसी दूसरी सांस्कृतिक शिक्षा से मिल सकता है.  आपको कब लगा कि बलराम नायडू (हासन निर्देशित फिल्म दशावतारम में एक रॉ एजेंट) पर अलग से एक फिल्म बनाई जा सकती है? मैंने पाया कि जिस भी जबान में आप इसका तर्जुमा कीजिए, वह उसी में बड़े मजे से उतर जाता है. हम क्लाउसोऊ थिंपक पैंथर फिल्म सीरीज के लोकप्रिय चरित्र, के काफी करीब पहुंच गए हैं. मैं पीटर सेलर्स का बहुत बड़ा फैन हूं. आप बेटी श्रुति को भी पहली बार निर्देशित कर रहे हैं. बहुत मुश्किल था. उसे रत्ती भर भी खौफ न था. होता भी क्यों? उसने इस आदमी को घर में नंगे बदन सोते और खर्राटे मारते देखा है (हंसते हैं). आपकी आखिरी फिल्म सुपरहिट इंडियन का सीक्वल होने की संभावना है. क्या आप खुद को भारतीय राजनीति में एक बागी के रूप में देखते हैं? नहीं. मैं एक राजनैतिक संस्कृतिवादी हूं ख्एक ऐसा व्यक्ति जो नई तरह की शासन व्यवस्था खड़ी करता है,. मैं जड़ता को चुनौती देने आया हूं. इसका मकसद सत्ता हासिल करना नहीं. हमें बदलना होगा और वह बदलाव मैं हूं. आपको वह बदलाव बनना होगा. मेरी बात अटपटी लग रही हो तो माफ कीजिएगा. सांस्कृतिक लोग देश में सियासत का ढर्रा बदल देंगे. मेरे मुंह से निकलने वाली सारी बात मेरी अपनी नहीं होती. इसमें देश की जनभावनाओं की झलक है, खासकर युवाओं की. उनके गुस्से और तेवर को देखकर आपकी बोली बंद हो जाए. मुझे किसी तरह की पहरेदारी में यकीन नहीं क्योंकि मैं गांधीजी का प्रशंसक हूं. अहिंसावादी अहिंसा का अनुयायी, होने के लिए बहुत साहस चाहिए.  रिटायरमेंट के आसपास पहुंच जाने पर एक तरह का संतोष का भाव भीतर बैठता है. तो क्या सिनेमा को दिए अपने 55 वर्षों में आपने सारी आकांक्षाएं पूरी कर लीं? मैं लगातार इसकी कोशिश करता आया था. सिनेमा समाज का एक छोटा-सा हिस्सा है. मैं दावा करूं कि मैं इसका एक्सपर्ट हूं तो यह मेरा अहंकार होगा. जर्मनी में शानदार कलाकार थे जो फासीवाद में डूबते गए और देखिए, क्या हश्र हुआ. उन्होंने अपनी कला को अपराध के हवाले कर दिया. मैं इसका हिस्सा नहीं बनना चाहता. मैं बदलाव के लिए दहाड़ लगाने वाली आवाज बनना चाहता हूं. लेकिन सिनेमा भी तो बदलाव का कारगर हथियार बन सकता है. बिजनेस के रूप में सिनेमा मुझे किसी और ढर्रे पर खींच ले जाता है. बिजनेस की सियासत असल सियासत से भी बदतर है. कम से कम यहां आप कुछ अच्छा करने का नाटक तो करते हैं; वहां तो वह भी लफड़ा नहीं है. रजनीकांत भी सियासत में कदम रख चुके हैं लेकिन उन्होंने रिटायर होने की किसी योजना के बारे में अभी कुछ नहीं बताया. यह व्यक्तिगत विषय है. जब वे सिनेमा पर राज कर रहे हैं तो फिर उस काम को रोकने या छोडऩे की इच्छा क्यों रखेंगे? वैसे भी अभी वे राजनीति में उतरे नहीं हैं, बातें ही कर रहे हैं. जब उतरेंगे तब उनसे बहस आगे बढ़ेगी. बेशक. मैं एक भारतीय हूं. मैं ओछी सियासत नहीं कर रहा. आपको क्यों लगता है कि मैं गांधी जी या मोदी जी नाम के गुजराती सज्जनों के बारे में बात करता हूं. दोनों मुझे प्रभावित करते हैं. मैं राष्ट्रगान गाता हूं जो मेरी जबान में नहीं है. यह देश की सुंदरता है—यही इसकी विविधता की पहचान है.  क्या कभी ऐसा लगा कि सियासत आपको बुला रही है? अक्षरा बेटी, ने मुझे रोते हुए देखा है. मैं जो कर रहा हूं यह वह नहीं है जो मुझे करना था. उसने पूछा, "फिर वह क्या है जो आपको करना था? क्या आप दुखी हैं? क्या आप अपनी निजी जिंदगी के बारे में सोच रहे हैं?'' मैं जीवन के बारे में सोच रहा था. जब मैं 18 वर्ष का था तो मैंने लिखना शुरू कर दिया. मैंने अपनी स्वतंत्रता का पूरी जिम्मेदारी से या सही तरीके से उपयोग नहीं किया है. मुझे कागज और कलम मिली पर मैंने कविता कभी नहीं लिखी. मैं हमेशा यूं ही बड़बड़ाया करता हूं. यह सेल्फ-सेंसरिंग क्यों? हर कोई यही कर रहा है. हमें लगता है कि हमने किसी को नियुक्त किया है और वह इसे करेगा. मानो एक चौकीदार तैनात है इसलिए मैं चैन की नींद सो सकता हूं. इसीलिए तो प्रधानमंत्री खुद को "प्रधान चौकीदार'' कहते हैं. लेकिन उनके शरीर की भी एक आंतरिक घड़ी है. अगर वे सो जाएं तो फिर क्या होगा? आपका झुकाव किस ओर है? आप राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, पिनाराई विजयन सबसे मिल चुके. प्रधानमंत्री से मुलाकात की कोई योजना? मैंने मिलने का समय मांगा है लेकिन उनकी टेबल पर मुलाकात के बहुत-से ख्वाहिशमंदों की अर्जियां पड़ी हैं. आप उनसे कहेंगे क्या? वही जो अब तक कहता आया हूं पर विनम्रता से. हमारी कोई आपसी लड़ाई तो है नहीं. हमारे बीच केवल वैचारिक मतभेद हैं. क्या सियासत सिनेमा से ज्यादा मेहनत मांगती है? लोग ऐसा जताने की कोशिश करते हैं लेकिन ऐसा है नहीं. यह तो जनता का ही काम है. आपको इसमें मजा आता है. सिनेमा आपको किसी स्तर पर चौंकाता नहीं लेकिन जनता आपको चौंकाती है. इसमें (सियासत में) मुझे बहुत मजा आता है. आप किसी फिल्म के लिए मुझे इतनी कड़ी मेहनत करते कभी नहीं पाएंगे.  सिनेमा के दर्शकों और सियासत के दर्शकों में अंतर है? बेशक. एक आपके दीवाने हैं, वे आपको कभी हानि नहीं पहुंचाएंगे. एक आरामदायक और सुरक्षित पिंजरा है जहां मैं कुछ भी कह सकता हूं और उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी. होगी तो उसे पद्मावती रिएक्शन कहिए. यहां वे अराजक हैं. जवाब न दिया तो आप चढ़े हत्थे. राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि ऐक्टर से अभिनेता बने ज्यादातर लोग सफलता को बॉक्स ऑफिस के फॉर्मूले की तरह सोचकर चलते हैं. ऐसा कोई फॉर्मूला नहीं. बल्कि यह तो कमांडो ट्रेनिंग जैसा है. निरंतर अभ्यास करते रहिए और मौके के लिए खुद को तैयार रखिए. आप जैसे ही सियासत की जमीन पर कदम रखते हैं, कुछ भी योजनाबद्ध नहीं होता. सोशल मीडिया आपने अभियान में किस तरह मददगार होगा? इस बारे में मैंने पहले नहीं सोचा था. मुझे लगता था यह निजता में दखल है. मैं अपनी ही दुनिया में था. पर यह मुमकिन नहीं. मेरे करोड़ों खर्च करवाने की बजाए सोशल मीडिया मेरी पहुंच आसान बना सकता है. 2019 में क्या आप राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी का समर्थन करेंगे? एक व्यापक फलक पर रखकर देखें तो यह किसी का भी नाम लिए बगैर देश के दूसरे हिस्सों के एकजुट होकर बराबरी के लिए आवाज उठाने का माकूल समय है. उन हिस्सों के बरअक्स जहां के लोग बराबर बोलते आए हैं कि फलां को प्रधानमंत्री होना चाहिए. इसीलिए तो मेरी पार्टी का चुनाव निशान दक्षिण के छह राज्य हैं. मैं एक संघीय राज्य की बात कर रहा हूं. इसीलिए मैंने पिनाराई विजयन, चंद्रबाबू नायडू, एच.डी. कुमारस्वामी से मिला हूं और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव से भी मिलूंगा. हमें संगठित होना होगा. कर्नाटक में हमने देख ही लिया. वजह मजबूरी नहीं, बल्कि देश की बेहतरी होनी चाहिए. "पहरेदारी में मेरा कोई यकीन नहीं क्योंकि मैं गांधीजी का प्रशंसक हूं. वे कहीं ज्यादा खतरनाक थे. अहिंसावाद एक तरह से वीरता की पराकाष्ठा ही तो होती है.''


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